Parde Ke Peechhe

The blog is dedicated to the articles written by Jaiprakash Chaukse. Articles are mostly based on the Mumbai Film Industry and their impact on Indian Society. Here he tries to apply his knowledge and information to make readers understand what goes behind while a movie or a particular scene or song or event happens.

Tuesday 18 December, 2007

माधुरी, मनोरंजन, मस्ती और माधुर्य

जयप्रकाश चौकसे
Saturday, December 01, 2007 00:32 [IST]
http://www.bhaskar.com/2007/12/01/0712010049_aaja_nachle.html




परदे के पीछे.आदित्य चोपड़ा, निर्देशक अनिल मेहता और जयदीप साहनी बधाई के पात्र हैं। उन्होंने माधुरी दीक्षित अभिनीत ‘आजा नच ले’ को एक अत्यंत मनोरंजक और सामाजिक सौद्देश्यता वाली फिल्म की तरह गढ़ा है। इसे देखने के बाद दर्शक बहुत ही प्रसन्नता के साथ थिएटर से बाहर निकलता है और कई लोग नम आंखों को छुपा नहीं पाते। कुछ चेहरों पर सूखे हुए आंसुओं के निशान देखे जा सकते हैं।

कमाल की बात यह है कि माधुरी की केंद्रीय भूमिका वाली इस फिल्म में ढाई दर्जन सहायक भूमिकाएं हैं और सभी अभिनेताओं ने माधुरी की वापसी को सार्थक बनाने के लिए अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक दिए हैं। कुनाल कपूर (रंग दे बसंती) कोंकणा सेन शर्मा, दिव्या दत्ता, दर्शन जरीवाला, रघुवीर यादव, विनय पाठक, रनवीर शोरी, इरफान खान, मुकेश तिवारी ने अपनी भूमिकाएं जड़ाऊ अंदाज में की हैं। हीरे के नेकलेस में छोटे मोती, हीरे, नीलम इत्यादि पत्थरों को जड़ा जाता है। मामला कुछ ऐसा ही है। इस फिल्म के लेखक ने रोजमर्रा बोली जाने वाली भाषा में कमाल के संवाद लिखे हैं। पूरी फिल्म में हास्य, विट इस तरह प्रस्तुत है कि दर्शक को पसलियों के पास अदृश्य उंगलियों द्वारा की गई गुदगुदी महसूस होती है। ‘चख दे इंडिया’ की तरह यह फिल्म भी आपके दिल को झंकृत करती है।

फिल्म में गंभीर सामाजिक तथ्यों की भीतरी लहर भी मौजूद है। एक छोटे शहर में सांस्कृतिक गतिविधियों के ‘अजंता’ नामक केंद्र को नष्ट करके वहां मॉल और मल्टीप्लैक्स गढ़ा जाने वाला है। एक चतुर व्यापारी
को यह दंभ भी है कि सरकार या अफसर नहीं वरन व्यापारी देश को चला रहे हैं। यथार्थ जीवन में यह सच है कि बाजार की ताकतों ने संसद को अपने कब्जे में किया है और ‘सेज’ बतर्ज नंदीग्राम बनाने के लिए जोर जबरदस्ती जारी है। जैसे मशीन के साथ जीवन शैली आती है वैसे ही मॉल और मल्टीप्लैक्स के साथ उपभोग और दिमाग अय्याशी का एक पूरा संसार भी साथ आता है। आज हम जिस ग्रेनाइट और संगमरमरी प्रगति पर इतरा रहे हैं, उसके भीतर कितनी सड़ांध है इसका अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं। इस मनोरंजक फिल्म में इस तरह के गंभीर इशारे हैं, परंतु पूरा स्वरूप भावना से ओतप्रोत ही रखा गया है।

राजकपूर की फिजूलखर्ची

परदे के पीछे
जयप्रकाश चौकसे
Friday, December 14, 2007 00:03 [IST]
http://www.bhaskar.com/2007/12/14/0712140019_raj_kapoor.html


सृजन करने वाले के चलने-फिरने, खाने-पीने का कोई अर्थ नहीं होताउसके लीन हो जाने और डूबजाने से ही उसे मुक्ति और सार्थकता मिलती है



आज राजकपूर का 83वां जन्मदिन है। उनके समकालीन देवआनंद और दिलीपकुमार आज भी सक्रिय हैं और उम्र में उनसे बरस दो बरस बड़े भी हैं। अपनी फिल्मों को भव्यतर बनाने की तरह राजकपूर अपनी उम्र के मामले में भी फिजूलखर्च रहे। स्वयं को बचाकर चलना उन्होंने कभी जाना ही नहीं। डूबकर दरिया के पार जाने का अंदाज उनके काम में भी था और जीवन में भी। आग के दरिया से ऐसे ही गुजरते हैं। इश्क से सराबोर जीवन में और क्या हो सकता था। दास्तान-ए-राजकपूर अजीब सी रही, कहां से शुरू हुई और खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। फिल्म जिस निगेटिव पर बनती है, वह ज्वलनशील सेल्युलाइड है परंतु उस पर रचे अफसाने मरते नहीं क्योंकि दरअसल वे दर्शक के मन में गढ़े गए हैं। परदे पर स्टील के बने प्रोजेक्टर से दिखाई गई फिल्में दरअसल दर्शक के मन में ही गढ़ी जाती हैं और वहीं सदा कायम भी रहती हैं। सिनेमाघर में छाए हुए अंधेरे का दर्शक का मन की अंधेरी गुफा से गहरा रिश्ता है। परदे पर प्रस्तुत उजास तो महज बहाना है। तर्कोतर यह खेला विचित्र है।
गुजरात के एक बालक ने ‘बूट पॉलिश’ देखकर भीख मांगना छोड़ दिया। आज उसके नाती-पोते शिक्षित और सफल लोग हैं और उन्हें गुमां भी नहीं कि उनकी कुंडली के योग एक फिल्म ने बदले हैं। दर्शक का कोई अनुभव जब वह परदे पर अभिनीत होते देखता है तो उसकी आत्मा के तार झंकृत हो उठते हैं। यादों से फिल्में बनती हैं और दर्शक के दिल में यादों की तरह बस जाती हैं। धर्म हो या सृजन कार्य, सब कुछ आपके डूब जाने की क्षमता पर निर्भर करता है। यह लीन हो जाना ही सार्थकता है। राजकपूर के पास डूब जाने की अद्भुत क्षमता थी। यह उनकी भावना की तीव्रता ही है जिसके कारण ‘संगम’ जैसी घोर अतार्किक फिल्म भी अपनी सिनेमाई लहर के कारण सफल रही। यह कैसे यकीन कर सकते हैं कि उस नायक को हिंदी पढ़ना नहीं आती, जो बाद में एयरफोर्स में चुना गया। अगर गोपाल के नाम राधा का लिखा प्रेमपत्र सुंदर पढ़ लेता तो कहानी दूसरी रील में समाप्त हो जाती।
वर्ष 1982 में राजकपूर सामंतवादी पृष्ठभूमि पर एक युवा विधवा की प्रेम कहानी बनाते हैं और एक्शन फिल्मों के शिखर दौर में फिल्म सफल रहती है। उस दौर में बूढ़े राजकपूर ने ऐसी हिम्मत दिखाई कि बरबस आपको हेमिंग्वे के ‘ओल्डमैन एंड द सी’ की याद आ जाती है। तूफान का अंदेशा है और बूढ़ा मछलीमार अपने काम पर चल पड़ा।
निर्माणाधीन पेंटिंग देखकर आपको उसके प्रभाव का अनुमान नहीं होता, क्योंकि ‘मास्टर’ ने अभी दो-तीन स्ट्रोक्स और लगाना है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ बन चुकी थी कि राजकपूर ने तीन दृश्य जोड़े- एक में नायक का ससुर कलकत्ता से बनारस जाते हुए पूछता है कि वह उसके लिए क्या लाए तो नायक कहता है कि बनारस से गंगा लाइए। वह सचमुच ले आया और हकीकत मालूम होते ही मौसा को बोला कि कलकत्ता से गंगा को बनारस वापस कर दें। मौसा ने कहा कि गंगा उल्टी नहीं बहती। इस राजकपूर स्पर्श के लिए अपनी संस्कृति में आकंठ डूबना होता है। सृजन करने वाले के चलने-फिरने, खाने-पीने का कोई अर्थ नहीं होता। उसके लीन हो जाने और डूब जाने से ही उसे मुक्ति और सार्थकता मिलती है।
किनारे पर बैठकर नदी में कंकड़ फेंकने से कुछ नहीं होता। प्रतीकात्मक चुल्लू भर पानी माथे पर लगाने से कुछ नहीं होता। इस डूब जाने के लिए ही राजकपूर ने खुद को बेतहाशा खर्च किया। आप अतिरिक्त असबाब लेकर डूब कैसे सकते हैं। आप कोई भी काम करें, उसमें पूरी तरह डूबकर करें- राजकपूर के जीवन से हमें यही प्रेरणा मिलती है।

आज भी जारी है रफी प्रभाव

जयप्रकाश चौकसे
Saturday, December 15, 2007 00:49 [IST]
http://www.bhaskar.com/2007/12/15/0712150059_mohammad_rafi.html

परदे के पीछे. बोनी कपूर की अनिल-पद्मिनी कोल्हापुरे अभिनीत ‘वो सात दिन’ और सनी देओल की प्रवेश फिल्म ‘बेताब’ में नए गायक शब्बीर को अवसर दिया गया और प्रारंभिक सफलता से आशा जगी कि वे मोहम्मद रफी की तरह के गायक सिद्ध होंगे। परंतु एक ही सदी में दो मोहम्मद रफी संभव ही नहीं हैं। शब्बीर के पास सीमित प्रतिभा थी, जिसे घोर रियाज और अनुशासन के सहारे काफी दूर तक ले जाया जा सकता था, परंतु पार्श्वगायन के क्षेत्र में इस तरह की साधना आसान नहीं होती।
लता मंगेशकर और आशा इस उम्र में भी रियाज करती हैं, क्योंकि वह उनके लिए सांस लेने की तरह स्वाभाविक प्रक्रिया है। उस दौर में नए नायकों के लिए किशोर कुमार का आग्रह था कि उनके पुत्र अमित को लिया जाए। संगीतकार ‘रफी प्रभाव’ चाहते थे, इसलिए शब्बीर को अवसर मिले। आज 25 बरस बाद, पार्श्वगायन क्षेत्र से खदेड़े जाने के बाद भी शब्बीर की रोजी-रोटी रफी साहब की वजह से चल रही है। उन्हें रफी के चाहने वाले अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं और ‘रफी प्रभाव’ की झलक मात्र के लिए उन्हें धन देते हैं। ऊपर से भी रफी साहब ने अपने ‘एकलव्यों’ पर कृपा दृष्टि बनाई हुई है।
हाल ही में इंदौर के उद्योगपति एसएस भाटिया ने अपने पारिवारिक समारोह में शब्बीर का कार्यक्रम रखा और शाम को रफीमय करने के प्रयास हुए। इत्तेफाक की बात है कि समारोह में शब्बीर को अवसर देने वाले बोनी कपूर के साथ ‘वो सात दिन’ की नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे भी मौजूद थीं और मेजबान के आग्रह पर पद्मिनी ने अपनी सफलतम फिल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ का एक गीत गाया। उनक अदायगी इतनी भावप्रवण थी कि श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो गए।
आश्चर्य है कि पद्मिनी ने कभी व्यावसायिक पार्श्वगायन के क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया। उनके पति निर्माता टूटू शर्मा भी इस मामले में पहल नहीं करते। ज्ञातव्य है कि लता मंगेशकर पद्मिनी की रिश्ते में बुआ लगती हैं। मराठीभाषी परिवारों में संगीत और नाटक के प्रति घोर श्रद्धा व साधना का भाव हमेशा रहा है और इसलिए उनके घर प्रतिभा का पालना सिद्ध होते रहे हैं। मैंने एक बार लताजी से पूछा था कि क्या वर्तमान बाजार युग में मध्यमवर्गीय मराठी परिवारों में साधना और श्रद्धा का भाव घटा है। वे इस मामले में थोड़ी चिंतित ही ध्वनित हुईं।
रफी, मुकेश, किशोर की यादों में आयोजित कार्यक्रम सिद्ध करते हैं कि माधुर्य अपने सक्रियता के कालखंड में सीमित नहीं रहता, वह कालजयी है। अपनी विलासिता में आकंठ लिप्त हम प्रकृति और धरती को नष्ट कर रहे हैं, साथ ही अनावश्यक शोर द्वारा अजर-अमर ध्वनि में भी प्रदूषण फैला रहे हैं।

पारिश्रमिक लेकर तिथि देता है अतिथि


जयप्रकाश चौकसे
Tuesday, December 18, 2007 01:35 [IST]

परद के पीछे.
राकेश रोशन की गैर रितिक फिल्म ‘क्रेजी 4’ में रितिक पर फिल्माए जाने वाले गीत की शूटिंग स्थगित कर दी गई है क्योंकि रितिक सिंगापुर में अपने घुटने का इलाज करा रहे हैं। रजनीकांत अभिनीत ‘शिवाजी’ के लिए प्रसिद्ध निर्देशक शंकर अपनी प्रस्तावित फिल्म ‘रोबोट’ की पटकथा रितिक को सुनाएंगे। ज्ञातव्य है कि यह फिल्म शाहरुख के लिए बनाने की बात तय हो चुकी थी और प्रारंभिक राशि भी मिल चुकी थी, परंतु मिजाज में अंतर के कारण समझौता रद्द हो गया। बहरहाल, खबर है कि राकेश रोशन ‘क्रेजी 4’ के आइटम के लिए शाहरुख से निवेदन करेंगे। फिल्मों में अतिथि भूमिका का चलन इस तरह प्रारंभ हुआ कि छोटी परंतु महत्वपूर्ण भूमिका के लिए व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर बड़े सितारे से प्रार्थना की जाती थी और वह पारिश्रमिक नहीं लेता था। विगत वर्षो में अतिथि भूमिका के लिए धन लिया जाने लगा है, क्योंकि सितारे जानते हैं कि उनकी मौजूदगी फिल्म को अतिरिक्त आय दे रही है। कुछ निर्माताओं ने नारीप्रधान फिल्मों में अतिथि भूमिका को पटकथा से जोड़ा, क्योंकि इन्हें बेचने में कठिनाई होती है। मसलन बोनी कपूर ने अपनी करिश्मा कपूर अभिनीत ‘शक्ति’ में शाहरुख-ऐश्वर्या का आइटम शूट किया।
आजकल टेलीविजन पर प्रस्तुत प्रचार प्रोमो के लिए भी पटकथा के परे आइटम रचे जाते हैं और आयटम का मूल्य सितारे के कारण बढ़ता है। करण जौहर की पहली फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ में सलमान की अतिथि भूमिका के कारण उन्हें दिए गए नाममात्र के पारिश्रमिक से कई गुना अधिक मुनाफा हुआ। अत: यह अतिथि भूमिकाओं का चक्कर ‘देवो भव’ नहीं है, वरन बहुत बड़ा व्यवसाय है। कुछ अतिथि भूमिकाएं सचमुच निशुल्क होती हैं जैसे सलमान और कैटरीना अतुल अग्निहोत्री(सलमान की बहन अलवीरा के पति) की फिल्म में काम कर रहे हैं। शाहरुख ने अपनी फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में दो दर्जन सितारे बुलाए, जिन्होंने कोई धन नहीं लिया, परंतु शाहरुख ने उन्हें अत्यंत महंगी घड़ियां भेंट में दीं। सितारे और उद्योगपति जिस तरह की घड़ियां उपहार में देते हैं, उनका मूल्य पांच से पंद्रह लाख रुपए प्रति घड़ी होता है। जिनका समय ही बलवान है, उन्हें इस राशि से क्या फर्क पड़ता है।
जब संजय दत्त ‘कांटे’ का निर्माण कर रहे थे, तब अमिताभ ने इस नाते कि सुनील दत्त ने उन्हें वर्ष 1971 में आई ‘रेशमा और शेरा’ में अवसर दिया था, उनसे पारिश्रमिक नहीं लिया, परंतु कुछ समय बाद ही अपनी फिल्म ‘विरुद्ध’ में संजय दत्त से अतिथि भूमिका करा ली। इस खेल में लेन-देन इस तरह भी होता है। यहां कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती, सिर्फ लेन-देन के स्वरूप बदल जाते हैं। इस तरह करेंसी अपनी परिभाषा के परे चली जाती है। अगर किसी ने आप पर दया दृष्टि डाली है तो समझ लीजिए कि किसी अदृश्य बहीखाते में आप पर एक हुंडी दर्ज कर ली गई है।
नायिकाएं भी नाप-तौलकर मुस्कराहट देती हैं, कहीं एक बटा चार इंच, कहीं गालों में दर्द पड़ जाए, वहां तक। होटलों और हवाईजहाजों की परिचारिकाएं सारे समय मुस्कराती रहती हैं, क्योंकि उन्हें इसी का वेतन मिलता है। टेलीविजन पर प्रस्तुत हास्य उद्योग के सारे सितारे घर जाकर अपने परिवार के लिए हंस नहीं पाते, क्योंकि हंसी का माद्दा बेचकर ही परिवार का पोषण हो रहा है। मुस्कान उद्योग में नेताओं की हंसी बहुत ही जहर भरी होती है।

सिनेमा में पूंजी निवेशक की भूमिका


जयप्रकाश चौकसे
Wednesday, December 12, 2007 00:26 [IST]


परदे के पीछे:कुछ दिन पूर्व इंडिया टुडे के संस्थापक श्री वीवी पुरी का देहावसान हो गया। मीडिया किंग होते हुए भी उन्होंने कभी स्वयं को प्रचारित नहीं किया और उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कभी कुछ प्रकाशित नहीं हुआ। इस फिल्म कॉलम में उन्हें आदरांजलि प्रस्तुत की जा रही है, क्योंकि एक जमाने में पुरी साहब फिल्मों में पूंजी निवेश करते थे। राज कपूर की आगको व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, परंतु पारखी पुरी साहब ने राज कपूर से 50 प्रतिशत लाभ के आधार पर पूंजी निवेश का अनुबंध किया और बरसात से जागते रहो तक की फिल्मों में उन्होंने पूंजी लगाई। उन्होंने बलदेवराज चोपड़ा की फिल्मों में भी धन लगाया। हिंदुस्तानी सिनेमा में ‘कलर’ के आते ही सामाजिक प्रतिबद्धता हाशिए पर फेंक दी गई और इसी मोड़ पर पुरी साहब ने फिल्में छोड़ दीं। 1970 में राज कपूर की मेरा नाम जोकरकी असफलता के बाद पुरी साहब ने राज कपूर के साथ बनाई 6 फिल्मों पर से अपने अधिकार हटा लिए और पूरा स्वामित्व राज कपूर का हो गया।
‘इंडिया टुडे’ में भी फिल्मों की तरह उनका आग्रह सामाजिक प्रतिबद्धता का रहा है और आज भी उन्हीं आदर्श मूल्यों का निर्वाह हो रहा है। उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ में मासिक न्यूज वीडियो भी प्रारंभ किया था, जो एक प्रकार से आज प्रचलित न्यूज चैनल का पूर्वानुमान माना जा सकता है।
आज फिल्म उद्योग में कारपोरेट और बैंक का धन उपलब्ध है, परंतु चौथे और पांचवें दशक में जब विपुल प्रतिभा मौजूद थीं, तब धन मिलना मुश्किल होता था। उस दौर में विभाजन के बाद मुंबई आए सिंधी और पंजाबी लोग फिल्म में पूंजी निवेश के लिए आगे आए और उनकी ब्याज की दर बहुत ऊंची थी। उस दौर में पुरी ने सुरक्षित ब्याज के बदले लाभ और हानि में भागीदारी की तथा जोखिम भी उठाया।
सातवें दशक में हिंदुजा परिवार ने फिल्म पूंजी निवेश क्षेत्र में राज कपूर की ‘बॉबी’ से प्रवेश किया। उसी दौर में जीएन शाह बहुत बड़े पूंजी निवेशक के रूप में उभरे। 1985 से भरत भाई शाह ने प्रवेश किया। इसके अतिरिक्त कई एजेंट ऐसे थे, जो अनेक व्यापारियों से थोड़ी-थोड़ी पूंजी लेकर इकट्ठा किया हुआ धन 36 प्रतिशत ब्याज पर निर्माता को देते थे और फिल्म निर्माण में विलंब के कारण तीसरे वर्ष लिए लाख पर ब्याज देने के बाद कुछ भी हाथ में नहीं आता था। पुरी साहब के अतिरिक्त किसी भी पूंजी निवेशक का आग्रह सामाजिक प्रतिबद्धता का नहीं रहा।
यह एक अत्यंत लोकप्रिय भ्रम है कि अपराध जगत ने स्वयं की छवि को गरिमामंडित करने के उद्देश्य से फिल्मों में धन लगाया। दरअसल उन्होंने कभी धन लगाया ही नहीं। वे केवल सफल व्यक्ति से धन ऐंठते थे, जैसा कि अन्य क्षेत्रों में भी करते थे। अपराध जगत के लोग अपनी जवानी में सितारों के प्रशंसक रहे, अत: ताकत आते ही उनसे मेल-जोल बढ़ाने के प्रयास उन्होंने किए।
1927 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पैरियर रिपोर्ट के अधिकारियों को दादा साहब फाल्के ने बताया था कि फिल्मों का बजट बढ़ते ही इसकी सामाजिक प्रतिबद्धता घटेगी और गलत मूल्यों में यकीन करने वालों का पैसा फिल्मों को तमाशे में तब्दील कर देगा। फिल्मों के जनक के अनुमान गलत नहीं थे। बहरहाल, किसी भी संस्था ने फिल्मों में पूंजी के प्रवाह पर शोध नहीं किया। इस तरह के शोध से सिनेमा और समाज के बदलते स्वरूप पर रोशनी पड़ सकती है।

सिनेमा समाचार और जॉन अब्राहम


परदे के पीछे. जॉन अब्राहम का खयाल है कि उनकी फिल्म ‘नो स्मोकिंग’ प्रचार के अभाव के कारण असफल रही। साथ ही उन महत्वपूर्ण आलोचकों से उनकी व्यक्तिगत मित्रता नहीं है जैसी कि अन्य सितारों ने जमा रखी है, जो फिल्मों के पक्ष में हवा बनाते हैं। जॉन की तरह कई आलोचकों को भी यही भ्रम है कि उनकी वजह से फिल्म चलती है। जैसे चुनाव के विशेषज्ञ जनता को समझने के मुगालते में रहते हैं, वैसे ही फिल्म के विशेषज्ञ भी जनता को समझने के मुगालते में रहते हैं। इन सारी बातों से अपरोक्ष रूप से यह कहने की कोशिश की जा रही है कि जनता स्वयं का विवेक इस्तेमाल नहीं करती या उसे भेड़ों की तरह रेले में हांका जा सकता है। अच्छी या बुरी आलोचना एक भी टिकट नहीं बिकवा पाती, ना ही एक भी दर्शक कम कर पाती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा शास्त्र में प्रशिक्षित नहीं होने के बावजूद भारतीय फिल्मकार फिल्म बनाते रहे हैं और फिल्म आस्वाद के अज्ञान के बावजूद दर्शक सिनेमा समझते रहे हैं। आज मौसम विशेषज्ञ शास्त्रसम्मत राय जाहिर करते हैं जो प्राय: गलत सिद्ध होती है, परंतु भारतीय कृषक आसमान देखकर ही अपनी बोवनी के समय का अनुमान लगा लेता है। इसका यह अर्थ नहीं कि विषय का शास्त्रीय ज्ञान अनावश्यक है। भारतीय मनोरंजन उद्योग में अंतश्चेतना (इंट्यूशन) का बहुत महत्व है। निर्माता द्वारा कहानी का चुनाव उसके मन की तरंग करती है और दर्शक द्वारा फिल्म को देखना भी उसकी तरंग पर ही निर्भर करता है। यह इंट्यूशन कोई दैवीय प्रेरणा नहीं है। इसके पीछे भी एक शास्त्र काम करता है। मैलकॉम ग्लैडवेल की किताब ‘ब्लिंक’ में अंतश्चेतना कैसे काम करती है, इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है।
दरअसल मनुष्य की जिज्ञासा अपार है और वह सृष्टि के हर क्रियाकलाप का अध्ययन करके शास्त्र रचता है, परंतु सृष्टि भी उस गुरु की तरह है जो शार्गिद को एक गुर नहीं सिखाती ताकि जब शार्गिद अहंकार के क्षण में चुनौती दे तो उसे पटका जा सके। इसी तरह एक अनजान अदृश्य तरंग है, जो मतदाता या दर्शक को प्रभावित करती है। जॉन की तरह अनेक फिल्मकार अपनी असफलता को स्वीकार नहीं करते हुए दूसरों को दोष देते हैं। फिल्मकार का काम है कि सरलीकरण द्वारा दर्शक से तादात्म्य स्थापित करे और यह नहीं कर पाने पर वह बहाने खोजता है।
यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि तर्क के परे कुछ अवधारणाओं पर अकारण ही लोग यकीन कर लेते हैं। मसलन जॉन से यह पूछे जाने पर कि उन्हें बिपाशा को खो देने का भय नहीं है, उन्होंने कहा कि जब तक बिपाशा के जीवन में उनसे ऊंचा, कोई 6 फुट 2 इंच का आदमी नहीं आता, उन्हें डर नहीं है। गोयाकि बिपाशा उनकी ऊंचाई से प्यार करती हैं। प्रेम के कारण खोजना अर्थात ईश्वर के प्रति आस्था में तर्क का आधार खोजना है। वैसे हाल ही में फिल्मफेयर के मुखपृष्ठ पर जॉन-बिपाशा की तस्वीरें कामसूत्र कंडोम के विज्ञापन की याद ताजा करती हैं।